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रुचं॑ नो धेहि ब्राह्म॒णेषु॒ रुच॒ꣳ राज॑सु नस्कृधि। रुचं॒ विश्ये॑षु शू॒द्रेषु॒ मयि॑ धेहि रु॒चा रुच॑म् ॥४८ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

रुच॑म्। नः॒। धे॒हि॒। ब्रा॒ह्म॒णेषु॑। रुच॑म्। राज॒स्विति॒ राज॑ऽसु। नः॒। कृ॒धि॒। रुच॑म्। विश्ये॑षु। शू॒द्रेषु॑। मयि॑। धे॒हि॒। रु॒चा। रुच॑म् ॥४८ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:18» मन्त्र:48


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे जगदीश्वर वा विद्वन् ! आप (नः) हम लोगों के (ब्राह्मणेषु) ब्रह्मवेत्ता विद्वानों में (रुचा) प्रीति से (रुचम्) प्रीति को (धेहि) धरो, स्थापन करो (नः) हम लोगों के (राजसु) राजपूत क्षत्रियों में प्रीति से (रुचम्) प्रीति को (कृधि) करो (विश्येषु) प्रजाजनों में हुए वैश्यों में तथा (शूद्रेषु) शूद्रों में प्रीति से (रुचम्) प्रीति को और (मयि) मुझ में भी प्रीति से (रुचम्) प्रीति को (धेहि) स्थापन करो ॥४८ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। जैसे परमेश्वर पक्षपात को छोड़ ब्राह्मणादि वर्णों में समान प्रीति करता है, वैसे ही विद्वान् लोग भी समान प्रीति करें। जो ईश्वर के गुण, कर्म और स्वभाव से विरुद्ध वर्त्तमान हैं, वे सब नीच और तिरस्कार करने योग्य होते हैं ॥४८ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

(रुचम्) प्रेम (नः) अस्माकम् (धेहि) धर (ब्राह्मणेषु) ब्रह्मवित्सु (रुचम्) प्रीतिम् (राजसु) क्षत्रियेषु राजपुत्रेषु (नः) अस्माकम् (कृधि) कुरु (रुचम्) (विश्येषु) विक्षु प्रजासु भवेषु वणिग्जनेषु (शूद्रेषु) सेवकेषु (मयि) (धेहि) (रुचा) प्रीत्या (रुचम्) प्रीतिम् ॥४८ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे जगदीश्वर वा विद्वँस्त्वं नो ब्राह्मणेषु रुचा रुचं धेहि, नो राजसु रुचा रुचं कृधि, विश्येषु शूद्रेषु रुचा रुचं मयि च रुचा रुचं धेहि ॥४८ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र श्लेषालङ्कारः। यथा परमेश्वरः पक्षपातं विहाय ब्राह्मणादिवर्णेषु समानां प्रीतिं करोति, तथैव विद्वांसोऽपि तुल्यां प्रीतिं कुर्य्युः। ये हीश्वरगुणकर्मस्वभावाद् विरुद्धा वर्त्तन्ते, ते सर्वे नीचास्तिरस्करणीया भवन्ति ॥४८ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात श्लेषालंकार आहे. जसा परमेश्वर भेदभाव न करता ब्राह्मण वगैरे सर्वच वर्णाच्या लोकांना समान प्रेम करतो, तसेच विद्वान लोकांनीही सर्वांना समान प्रेम करावे. जे ईश्वराच्या गुण, कर्म, स्वभावाविरुद्ध वागतात ते सर्व नीच व तिरस्कार करण्यायोग्य असतात.